[2021] Healthy Lifestyle in Ayurveda: प्रकृति ने सौंपा है अनमोल खज़ाना!!

Healthy Lifestyle in Ayurveda: प्रकृति ने पृथ्वी के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में स्थानीय भूगोल, जलवायु और मौसम के अनुकूल उस भूभाग में रहने वाले मनुष्यों के भोजन हेतु अनाज, शाक-सब्जियां, स्वास्थ्य रक्षा हेतु तदनुकूल वनौषधियाँ प्रदान की हैं। भारत में भी, विभिन्न भूभागों की जलवायु एवं मौसम के अनुकूल भोजन और वनस्पतियाँ सेवन करने की परंपरा रही है। यही कारण है कि बिना किसी चिकित्सा के भी लोग स्वस्थ, निरोगी दीर्घजीवी हुआ करते थे।

स्वास्थ्य रक्षा के लिए विश्व का प्राचीन स्वास्थ्य विज्ञान, आयुर्वेद ( Ayurveda ) था। यदि प्राकृतिक कारणों से रोग होते भी थे, स्थानीय स्तर पर उपलब्ध वनस्पतियों के सहायता से लोग स्वतः ठीक हो जाते थे। भारत में विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण के साथ ही भारतीय खानपान और देशज व्यंजनों पर अतिक्रमण कर, उनका विकृतिकरण प्रारम्भ हो गया।

Ayurveda: भारत में पुरातन काल से प्रकृति के त्रिगुणों:-

सत,  राजस एवं तमस के अनुरूप, भोजन भी तीन प्रकार का होता था- सात्विक, राजसी, तामसी। साधु, सन्यासी, संत, महात्मा, पुरोहित, विद्वान, ब्राह्मण, वृद्ध, रोगी इत्यादि सात्विक भोजन करते थे। इसीलिए उनको सतोगुण से युक्त माना जाता था। राजा एवं राजपरिवार के लोग, कुलीन क्षत्रिय तथा धनवान राजसी भोजन करते थे और उनको रजोगुण से युक्त माना जाता था।

तामसी भोजन में मुख्यतः

मांसाहार तथा तीक्ष्ण एवं विकृत भोजन शामिल था जिनका सेवन करने वालों को तामसी प्रवृत्ति का माना जाता था। तामसी भोजन समाज में निंदित एवं हेय था। सामान्य गृहस्थ अपनी आर्थिक क्षमतानुसार सात्विक एवं राजसी मिश्रित भोजन करते थे। भोजन में आमतौर पर क्षेत्रीय अनाज, ऋतु अनुकूल शाक-सब्जियाँ, फल एवं गोदुग्ध तथा दूध से बने पदार्थ सम्मिलित होते थे।

लोग बाज़ार में बना भोजन नहीं अपितु घर का बना भोजन ही खाते थे। यहाँ तक कि हरेक के घर का अथवा हरेक व्यक्ति का बनाया या लाया गया भोजन भी नहीं ग्रहण किया जाता था। ऋतु अनुकूल भोजन करने से शरीर स्वस्थ एवं निरोगी रहता था। किंचित अस्वस्थ होने पर साधारण घरेलू उपचार एवं उस क्षेत्र में होने वाली प्राकृतिक वनौषधियों का ज्ञान लगभग हरेक गाँव देहात में लोगों को रहता था। भोजन के साथ ही धर्मानुकूल अनुशासित दिनचर्या भी उत्तम स्वास्थ्य का आधार थी।

मुस्लिम शासकों, विशेषकर मुग़लों और नवाबों के शासनकाल में भोजन में स्वास्थ्य की बजाय स्वाद एवं विलासिता पर बल दिया जाने लगा। तेल-मसाला युक्त खाद्य पदार्थों, मांसाहारी व्यंजनों, बाजार में बिकने वाले खाद्य पदार्थों को अधिकाधिक प्रोत्साहित किया जाने लगा। विकृत भोजन, विलासी दिनचर्या तथा मदिरा, यौन कदाचार आदि व्यसनों का समाज में प्रचलन होने से रोग और रोगियों की संख्या में वृद्धि होने लगी।

जिस देश में चिकित्सा को कभी व्यवसाय के रूप में नहीं देखा गया वहाँ वैद्यों और हकीमों को समाज में खूब स्थान एवं सम्मान मिलने लगा जिससे चिकित्सा व्यवसाय फलने फूलने लगा। फ़िर अंग्रेजों के शासन के साथ ही देश में भोजन का विकृतिकरण बढ़ने लगा। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में दिनचर्या, आहार-विहार, भोजन-पोशाक सबकुछ प्रकृति एवं जलवायु अनुकूल होता था

लेकिन मुस्लिम शासकों एवं नवाबों का खानपान, रहनसहन सबकुछ भोगविलासी, इन्द्रियप्रधान एवं पूर्ण भौतिकतावादी था और भारत व्यापार करने आये अंग्रेजों ने इस देश में रोग के लक्षणों को केवल दबा देने वाली पाश्चात्य चिकित्सा एलोपैथी को थोप कर इसे मुनाफ़ाखोरी वाले लाभप्रद व्यवसाय में बदल दिया।  

मुस्लिम शासकों के समय भारतीय समाज में तम्बाकू, हुक्का, जाफ़रानी पत्ती, बीड़ी, तम्बाकू का पान, मदक, चरस, चंडू इत्यादि नशों का प्रचलन शुरू हुआ। मांसाहारी भोजन में बिरयानी, क़बाब, नहारी, पुलाव इत्यादि विभिन्न तरह के मांसाहार का प्रचलन बढ़ा। गेहूं का आटा, महीन अनाज, तंदूर, नान, रुमाली रोटी, गर्म पानी से स्नान, जाड़ों में बिना स्नान, ग़ैर धुले वस्त्रों को पहनना, खानपान की अशुद्धता, जूठा और बासी भोजन इत्यादि का प्रचलन भी बढ़ा। हिंदुओं के क़त्लेआम और व्यापक धर्मपरिवर्तन से मुस्लिमों की संख्या बढ़ने के साथ ही खानपान रहनसहन का विकृतिकरण बढ़ता गया।

अँग्रेजों ने भारत में चाय एवं काफ़ी का प्रचलन प्रारम्भ किया। देसी घी एवं शुद्ध खाद्य तेलों की जगह सस्ता कोकोजाम डालडा नाम से आना शुरू हुआ। अंग्रेजी शराब तथा सिगरेट का प्रचलन हुआ। भोजन पकाने हेतु मिट्टी के तेल का प्रयोग शुरू हुआ। फिर इसके बाद तो ढेरों आविष्कार आते गए और अंग्रेज अपनी शासन सुविधा एवं मुनाफ़ा हेतु उन्हें भारतीय समाज में प्रचलित करते गए। समाज में स्वच्छता के उद्देश्य से प्रचलित खानपान संबंधी परहेज़ को षड्यंत्रपूर्वक अस्पृश्यता चित्रित कर दिया गया।

अंग्रेजों के इस षड्यंत्र के अग्रदूत बने गांधी, डॉ अम्बेडकर, फुले और पेरियार, नेहरू, जैसे अंग्रेजपरस्त भारतीय, जिनसे छुआछूत, ऊंची जाति, नीची जाति और दलित-सवर्ण जैसे शब्दों को गढ़वाया और प्रचलित किया गया। ये सभी महानुभाव स्वतंत्रता संग्राम में किसी भी प्रकार का योगदान की बजाय अंग्रेजों के एजेण्डे पर ही कार्य करते रहे, जिसका इन्हें पारितोषिक भी मिला।

परन्तु पुरातन भारतीय रहनसहन, भोजन एवं संस्कृति के सतत विकृतिकरण से भारतीय जनजीवन में स्वास्थ्यगत समस्याओं में भीषण वृद्धि हुई जिससे विभिन्न गैर-संचारी रोग होने लगे।

स्वतंत्रता के पश्चात् भी देश का नेतृत्व काले अंग्रेजों के हाथ में आने से देसी खानपान, रहनसहन, भोजन-औषधि की बजाय यूरोप और अमेरिका से आयातित भौतिकतावादी संस्कृति को ही बढ़ावा दिया गया जिससे फलस्वरूप देशज आयुर्वेद (Ayurveda), वनौषधि विज्ञान के साथ ही देशज भोजन एवं रहनसहन का विकृतिकरण निरन्तर जारी है। शरीर को पर्याप्त पोषण देने वाले स्वास्थ्यकर अनाज – ज्वार, बाज़रा, मक्का, सावां, कोदो, अलसी, जौ आदि की खेती के बजाय अस्वास्थ्यकर विदेशी ग़ायब गेहूँ को बढ़ावा दिया गया। मोटे चावल की जगह महीन पॉलिश्ड चावल प्रचलित हो गया। हाथ से कुटी दालों की जगह पॉलिश्ड दालों ने ले लिया।

Healthy LifeStyle: ayurveda
Healthy LifeStyle in Ayurveda

शुद्ध तेल की जगह विषैले रिफाइण्ड तेल ने ले ली। हरित क्रांति के नाम पर सदियों पुरानी पारम्परिक जैविक कृषि की जगह अधिक पैदावार हेतु जेनेटिकली मोडिफाइड, हाइब्रिड महंगे बीज़, अधिकाधिक केमिकल खादों एवं जहरीले कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग होने लगा। फलतः आज भारत कैंसर, डायबिटीज, हेपटाइटिस, किडनी, लिवर, ब्लडप्रेशर, हाइपरटेंशन के रोगियों की संख्या के मामले में विश्व में ऊंचे पावदान पर है।

उपभोक्तावादी संस्कृति का शिकार आज का मानव अब खाने के मामले में बाजार पर अधिकाधिक आश्रित है। नई पीढ़ी घर में भोजन बनाने के लफ़ड़े की बजाय बाज़ार का खाना अधिक पसंद करती है। घर का बना भोजन करने वाले भी नाश्ते में अथवा किसी की मेहमानी में लगभग नित्य ही कुछ न कुछ बाजार का अवश्य खाते हैं। नाश्ते के नाम पर अधिकांश शहरी परिवारों में बेकरी उत्पाद या बाजार की बनी वस्तुओं को ही प्राथमिकता दी जाती है।

बाज़ार की चीजों के नाम पर क्या-क्या खा रहे हैं, उनमें क्या पड़ा है, वह कैसे बनाये गए हैं यह अधिकांश खानेवालों को कुछ भी नहीं मालूम होता। भारतीय संस्कृति में दूध फाड़कर बना पनीर नहीं खाया जाता था, लेकिन अब बिना पनीर के कोई भोज हो ही नहीं सकता… सीफ़ूड, चाइनीज़, कॉन्टिनेंटल, मेक्सिकन, अमेरिकन इत्यादि के नाम बिना इस बात की परवाह किए कि यह भारतीय जलवायु और परिवेश अनुकूल है या प्रतिकूल, हम सबकुछ खा जाते हैं। स्वास्थ्यकर देसी कलेवा तथा दूध एवं अनाज़ की मिठाइयों की जगह पर हम चॉकलेट, आइसक्रीम, चीज़, बर्गऱ, पिज्जा, मोमोज़, पास्ता, मैक्रोनी, मंचूरियन, हॉटडॉग और न जाने क्या-क्या स्वास्थ्यनाशक व्यंजन खाते रहते हैं।

दरअसल भारतीय समाज के रहनसहन, भोजन संस्कृति के विकृतिकरण के पीछे इस विशाल देश को एक बाज़ार बनाकर मुनाफ़ाखोरी प्राथमिक उद्देश्य है। भारतीय इस मुनाफाखोरी में सबसे बड़ी बाधक है, इसलिए सबसे पहले खानपान रहनसहन का विकृतिकरण करके मोटी कमाई की राह बनाई गई, फिर उससे पैदा हो रही तरह तरह की बीमारियों के इलाज ख़ातिर एलोपैथी इलाज़ को थोपा गया।

प्राकृतिक चिकित्सा (like Ayurveda), योग-प्राणायाम, एक्यूप्रेशर, आयुर्वेद ( Ayurveda ), यूनानी, हक़ीमी इत्यादि चिकित्सा पद्धतियों को जानबूझकर बर्बाद किया गया। एलोपैथी से कॉरपोरेट जगत के भारी मुनाफ़े ने होम्योपैथी समेत लगभग सभी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को उपेक्षित किया। स्थिति इतनी विकृत हो है है कि पहले दूषित भोजन खिलाकर मुनाफा, फ़िर बीमारियों में एलोपैथी इलाज़ के नाम पर दवाइयों, उपकरणों, थेरेपियों इत्यादि से लाखों करोड़ का सालाना व्यापार। एलोपैथी की खासियत यही है कि वह चिकित्सा व्यापार को तब तक समाप्त नहीं होने देती जब तक रोगी स्वयं समाप्त नहीं हो जाता।

एक बीमारी की एलोपैथिक औषधि उस बीमारी को ठीक करके कई अन्य बीमारियाँ शुरू कर देती है। ख़ैर कुछ लोग जागने और जगाने का प्रयास अवश्य कर रहे हैं। अब भारत में भी जैविक कृषि, मोटे अनाज, शुद्ध देसी घी-तेल, आयुर्वेद ( Ayurveda , वनौषधियों-जड़ीबूटियों, योग-प्राणायाम, देसी भोजन के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है इसलिये आप एकबारगी पहनिए चाहे कुछ भी लेकिन भोजन वही करिये जिसे आप जानते हैं क्योंकि भोजन एक बार शरीर के अंदर चला गया तो अपना अच्छा या बुरा प्रभाव छोड़कर ही बाहर निकलता है।

लेखक: आलोक वाजपेयी, एमए (अँग्रेजी एवं मनोविज्ञान):- लेखक गत 20 वर्षों से विभिन्न सामाजिक, ऐतिहासिक, Ayurveda, स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर लेख लिखते आ रहे हैं।

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